प्रयागराज – इलाहाबाद हाईकोर्ट ने किरायेदारी नियंत्रण कानून पर एक महत्त्वपूर्ण फैसला सुनाते हुए कहा है कि किरायेदारी को स्वीकार करने के बाद किरायेदार उससे मुकर नहीं सकता है. वह यह नहीं कह सकता कि वास्तविक किरायेदार कोई और है. वह किरायेदार नहीं है. इसलिए किरायेदारी छोड़ने का आदेश उस पर लागू नहीं होगा. यह फैसला जस्टिस नीरज तिवारी के एकल पीठ ने कानपुर नगर नौगहरा के प्रकाश चंद्रा की याचिका पर दिया है.
याचिका में प्राधिकृत अधिकारी व अपर जिला जज कानपुर नगर के आदेशों को चुनौती दी गई थी. दोनों आदेशों में याची को किराये की दुकान में 60 दिन में खाली करने का आदेश दिया गया था. याची की दलील थी कि दुकान 1960 में किराये पर उसके दादा ने ली थी. इसके बाद उसके पिता को विरासत के रूप में प्राप्त हुई. उसके पिता अभी भी जीवित हैं. किरायेदारी उन्हीं के नाम है. इसलिए याची के विरुद्ध दुकान खाली करने का आदेश नहीं पारित किया जा सकता है. याची का कहना था कि यह बिंदु उसने प्राधिकृत अधिकारी और अपीलीय कोर्ट के समक्ष नहीं उठाया था. इसलिए इसे वह किसी भी समय और किसी भी न्यायालय के समक्ष उठा सकता है. कोर्ट ने याची की इस दलील को स्वीकार नहीं किया.
कोर्ट का कहना था कि याची किरायेदार के रूप में दो अदालत में मुकदमा लड़ चुका है और अब इस स्थिति में आकर वह यह नहीं कह सकता कि वह किरायेदार नहीं है. कोर्ट ने याची की इस दलील को अस्वीकार कर दिया कि अधीनस्थ न्यायालयों ने किरायेदार और मकान मालिक की तुलानात्मक समस्या का आकलन करने में गलती की है. कोर्ट ने कहा कि यह साबित है कि याची ने दुकान के लिए वैकल्पिक स्थान खोजने का कोई प्रयास नहीं किया. मकान मालिक रीतेश भार्गव द्वारा अपने व्यवसाय के विस्तार के लिए दुकान की आवश्यकता बताई गई है. जो सही प्रतीत होती है. कोर्ट ने याचिका खारिज करते हुए याची को दुकान खाली करने का नवंबर माह तक का समय दिया है.