सुप्रीम कोर्ट के पूर्व न्यायाधीश जस्टिस अभय एस. ओका के एक बयान से जुड़ी है, जिसमें उन्होंने भारतीय न्याय व्यवस्था और अदालतों के बारे में महत्वपूर्ण टिप्पणी की है। आइए, सुनते हैं कि जस्टिस ओका ने क्या कहा।
जस्टिस अभय एस. ओका ने कहा, “जिन कोर्ट्स में आम आदमी अपने मुकदमे लड़ता है, उन्हें ‘निचली अदालत’ या ‘अधीनस्थ अदालत’ कहना संवैधानिक मूल्यों के खिलाफ है। ये जिला अदालतें और तथाकथित निचली अदालतें ही देश की प्रमुख अदालतें हैं।
जस्टिस ओका का यह बयान न्यायिक व्यवस्था में एक नई बहस को जन्म दे सकता है। उन्होंने यह भी कहा कि जब कोई वकील न्यायाधीश बनता है, तो उसे अपने निजी, नैतिक, दार्शनिक या धार्मिक विचारों को एक तरफ रखना पड़ता है। उनके अनुसार, जो कानूनी और संवैधानिक है, वही न्यायाधीशों के लिए नैतिक होना चाहिए।
जस्टिस ओका का यह बयान उन लाखों आम नागरिकों के लिए महत्वपूर्ण है, जो जिला अदालतों में अपने हक के लिए लड़ते हैं। उनका मानना है कि इन अदालतों को कमतर आंकना संविधान के मूल्यों का अपमान है। यह बयान न केवल न्यायिक व्यवस्था के ढांचे पर सवाल उठाता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि जिला अदालतें देश की न्यायिक प्रणाली की रीढ़ हैं।
जस्टिस ओका का यह बयान बहुत महत्वपूर्ण है। यह हमें याद दिलाता है कि जिला अदालतें और तथाकथित निचली अदालतें ही वह जगह हैं, जहां आम आदमी को सबसे पहले न्याय मिलता है। इन अदालतों को ‘निचली’ कहना उनकी गरिमा को कम करता है। यह एक संवैधानिक दृष्टिकोण से भी गलत है।
जस्टिस ओका ने यह भी बताया कि एक बार एक कानून अधिकारी ने उनसे पूछा था कि आर्थिक अपराधों में, जहां सार्वजनिक धन शामिल हो, वहां जमानत कैसे दी जा सकती है। इस पर उन्होंने कहा कि न्यायाधीशों को लोकप्रिय राय से प्रभावित नहीं होना चाहिए, बल्कि उन्हें केवल कानून और संविधान का पालन करना चाहिए।
यह बयान न केवल न्यायिक प्रक्रिया पर प्रकाश डालता है, बल्कि यह भी दर्शाता है कि न्याय व्यवस्था में निष्पक्षता और संवैधानिक मूल्यों का कितना महत्व है। जस्टिस ओका का यह विचार निश्चित रूप से समाज में एक नई जागरूकता लाएगा।

