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‘कुर्बानी’ को लेकर बाबा बागेश्वर और AMU के प्रोफेसर आमने सामने

बक़रीद पर जानवरों की कुर्बानी को लेकर इन दिनों बहस छिड़ी हुई है. बाबा बागेश्वर धाम ने भी कुर्बानी पर आपत्ति जताते हुए जीव हत्या को पूरी तरह प्रतिबंधित करने की बात कही है. उनके इस बयान पर अलीगढ़ मुस्लिम यूनिवर्सिटी के असिस्टेंट प्रोफेसर रिहान अख्तर ने पलटवार किया है

इस मामले में बाबा बागेश्वर धाम ने इसे जीव हिंसा बताया है। उनके अनुसार बलि प्रथा किसी धर्म में उचित नहीं मानी जानी चाहिए। अगर किसी को जीवन देने की शक्ति नहीं है, तो उसे मारने का भी अधिकार नहीं है। उनके मुताबिक़ कुर्बानी की परंपरा किसी विशेष परिस्थिति में रही होगी, जिसे अब आवश्यक नहीं माना जाना चाहिए। यह बयान अहिंसा के सिद्धांत पर आधारित है, जो हिंदू दर्शन में प्रमुख माना जाता है। लेकिन जब कोई धार्मिक परंपरा पर सवाल उठाता है, खासकर जब वह दूसरे धर्म की हो, तो स्वाभाविक रूप से प्रतिक्रिया होती है।

वही बाबा बागेश्वर के बायान पर एएमयू के प्रोफेसर रिहान अख्तर ने पलटवार करते हुए कहा की आज आप कुर्बानी पर आपत्ति जता रहे हैं, कल नमाज, रोजा और जकात पर भी आपत्ति करेंगे? हज में बकरों की कुर्बानी एक आवश्यक धार्मिक अनुष्ठान है — अगर कुर्बानी नहीं की गई, तो हज अधूरा माना जाता है।
उन्होंने यह भी स्पष्ट किया कि कानून और प्रशासन की गाइडलाइन का पालन ज़रूरी है — किसी प्रतिबंधित पशु की कुर्बानी नहीं होनी चाहिए — लेकिन धार्मिक स्वतंत्रता में हस्तक्षेप स्वीकार्य नहीं।

संवैधानिक दृष्टिकोण से: भारत का संविधान हर नागरिक को धार्मिक स्वतंत्रता का अधिकार देता है (अनुच्छेद 25)। लेकिन यह स्वतंत्रता जनहित, स्वास्थ्य और नैतिकता के अधीन होती है। यानी धार्मिक आस्था का पालन किया जा सकता है, जब तक वह कानून के दायरे में हो।

कानूनी पक्ष: सरकार हर वर्ष बकरीद से पहले गाइडलाइन जारी करती है, जिनमें यह स्पष्ट होता है कि किस प्रकार के जानवर की कुर्बानी दी जा सकती है, और किनकी नहीं। इसमें पर्यावरण, स्वास्थ्य और सामाजिक सौहार्द को ध्यान में रखा जाता है।

सामाजिक दृष्टिकोण से: जब एक धर्म के रीति-रिवाज़ों पर कोई बाहरी आलोचना करता है, तो वह धार्मिक असहिष्णुता मानी जा सकती है, खासकर यदि उसकी अभिव्यक्ति सार्वजनिक मंच से हो।

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