चीन और रूस के घनिष्ठ संबंधों के बीच एक पुराना सीमा विवाद एक बार फिर चर्चा में है। हाल ही में यह सामने आया है कि चीन रूस के अमूर, वालदिवोस्तोक और टुमैन नदी के एक द्वीप पर दोबारा दावा जताने की कोशिश कर रहा है। यह मुद्दा इसलिए भी चौंकाता है क्योंकि चीन को रूस का करीबी दोस्त माना जाता है। रूसी राष्ट्रपति व्लादिमीर पुतिन इसी वर्ष चीन की विक्ट्री परेड में शामिल हुए थे और शी जिनपिंग भी मॉस्को की यात्रा कर चुके हैं। बावजूद इसके, चीन की ओर से इन क्षेत्रों पर ऐतिहासिक दावा उठाना भू-राजनीतिक बहस का विषय बना हुआ है।
अमेरिकी आउटलेट न्यूजवीक की रिपोर्ट के मुताबिक चीन उन भूभागों को अपना बताता है, जो 18वीं और 19वीं शताब्दी में किंग राजवंश के दौर में रूस के कब्जे या संधियों के तहत उसके नियंत्रण में चले गए थे। चीन और रूस के बीच 4,209 किलोमीटर लंबी खुली सीमा है, और इन्हीं सीमावर्ती क्षेत्रों में तीन प्रमुख इलाके—वालदिवोस्तोक, अमूर और टुमैन नदी का द्वीप—विवाद के केंद्र में हैं।
विशेष रूप से टुमैन नदी का द्वीप रणनीतिक रूप से बेहद महत्वपूर्ण माना जाता है। चीन का मानना है कि इस द्वीप पर नियंत्रण पाकर वह जापान पर दबाव बढ़ा सकता है। यह नदी जापान के पास सागर में गिरती है, और बीजिंग की नजर में इस इलाके पर नियंत्रण से उसे जापान के खिलाफ भू-राजनीतिक बढ़त मिल सकती है।
रूस और चीन के बीच इन क्षेत्रों को लेकर आखिरी बार 2008 में बातचीत हुई थी जिसके बाद से यथास्थिति बनी हुई है, लेकिन चीन अब भी अपने आधिकारिक नक्शों में इन क्षेत्रों पर दावा बनाए हुए है। बीजिंग सरकार ने हाल ही में आदेश दिया है कि सभी सरकारी मानचित्रों में इन्हें चीन के दृष्टिकोण से ही दर्शाया जाए।
इतिहास के अनुसार, 1855 से 1915 के बीच रूस ने चीन से लगभग 10 लाख हेक्टेयर जमीन हासिल की। 1858 में रूस को अमूर क्षेत्र मिला, जबकि 1860 की बीजिंग संधि के तहत रूस को वालदिवोस्तोक सौंपा गया। यह क्षेत्र लगभग 4 लाख वर्ग किलोमीटर में फैला है। 1914 में रूस ने तुवा इलाके पर भी कब्जा जमा लिया, जो पहले चीन के प्रभाव क्षेत्र में था।
चीन ने इन जमीनों को वापस पाने की कई कोशिशें की हैं, लेकिन ऐतिहासिक स्थिति और भू-राजनीतिक संतुलन के कारण उसे सफलता नहीं मिली। रिपोर्ट्स के अनुसार अब चीन धोखे से किसी नई संधि या राजनीतिक रणनीति के जरिए इन पर दावेदारी मजबूत करने की कोशिश कर सकता है।
रूस और चीन की दोस्ती के बीच यह पुराना विवाद एक नई अनिश्चितता पैदा कर रहा है, जिसे एशियाई भू-राजनीति के आने वाले समय में बड़ा मुद्दा माना जा रहा है।

