
उपराष्ट्रपति जगदीप धनखड़ ने एक बार फिर न्यायपालिका और कार्यपालिका के बीच की सीमाओं को लेकर नई बहस छेड़ दी है। मंगलवार को दिए अपने बयान में उन्होंने सुप्रीम कोर्ट की हालिया टिप्पणी पर सवाल खड़े किए और न्यायपालिका पर “अधिकारों की सीमा लांघने” का आरोप लगाया।
धनखड़ ने स्पष्ट रूप से कहा कि “संसद देश की सर्वोच्च संस्था है” और संविधान में ऐसा कोई प्रावधान नहीं है जो किसी अन्य संस्था को संसद के ऊपर रखता हो। दिल्ली विश्वविद्यालय के एक कार्यक्रम में बोलते हुए उन्होंने कहा कि संवैधानिक पद पर बैठे लोगों के हर शब्द का उद्देश्य राष्ट्रहित होता है, और इसे लेकर शंकाएं पैदा करना उचित नहीं है।
उनका यह बयान उस पृष्ठभूमि में आया है जब सुप्रीम कोर्ट की एक पीठ ने राज्यपालों द्वारा रोके गए विधेयकों पर राष्ट्रपति की मंजूरी के लिए तीन महीने की समयसीमा निर्धारित की थी। इस पर प्रतिक्रिया देते हुए उपराष्ट्रपति ने कहा कि न्यायपालिका को ‘सुपर संसद’ की भूमिका निभाने का अधिकार नहीं है और न ही वह कार्यपालिका के अधिकार क्षेत्र में दखल दे सकती है।
उन्होंने यह भी कहा कि यह विचार कि संवैधानिक पद केवल प्रतीकात्मक या औपचारिक होते हैं, पूरी तरह से भ्रामक है। उन्होंने जोर देते हुए कहा कि चाहे कोई संवैधानिक पदाधिकारी हो या आम नागरिक, संविधान में सभी की भूमिका स्पष्ट है और उसका सम्मान किया जाना चाहिए।
धनखड़ ने इस बात पर भी चिंता जताई कि न्यायपालिका अब ऐसे निर्णय ले रही है जो विधायिका और कार्यपालिका के क्षेत्राधिकार में आते हैं। उन्होंने कहा,
“हमने ऐसा लोकतंत्र कभी नहीं सोचा था जिसमें जज न केवल कानून बनाएंगे, बल्कि शासन का कार्य भी करेंगे।”
उन्होंने सुप्रीम कोर्ट के उस फैसले पर खासतौर पर आपत्ति जताई जिसमें राष्ट्रपति को तीन महीने के भीतर विधेयकों पर निर्णय लेने का निर्देश दिया गया है। उन्होंने कहा,
“राष्ट्रपति को निर्देशित किया गया है कि वे समय-सीमा में निर्णय लें और यदि ऐसा न हुआ तो विधेयक स्वतः कानून बन जाएगा – यह लोकतंत्र की मूल कल्पना से मेल नहीं खाता।”