वंदे मातरम् की 150वीं वर्षगांठ पर संसद में आज एक ऐसी बहस देखी गई, जिसने पुराने इतिहास और आज की राजनीति—दोनों को फिर से चर्चा के केंद्र में ला दिया। प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ने इस मौके पर कांग्रेस और विशेष रूप से जवाहरलाल नेहरू पर गंभीर आरोप लगाए। उन्होंने कहा कि जिस वंदे मातरम् को 1905 में महात्मा गांधी राष्ट्रगान जैसा सम्मान देते थे, जिस गीत ने स्वतंत्रता आंदोलन को सबसे ज्यादा ऊर्जा दी, उसी गीत के साथ पिछली सदी में “अन्याय” हुआ। उन्होंने आरोप लगाया कि नेहरू ने मोहम्मद अली जिन्ना और मुस्लिम लीग को खुश करने के लिए वंदे मातरम् को राष्ट्रगान बनने से रोका। यह आरोप सामने आते ही राजनीतिक तापमान बढ़ गया और यह सवाल एक बार फिर उठ खड़ा हुआ कि आखिर वंदे मातरम् को राष्ट्रगान का दर्जा क्यों नहीं दिया गया।
अब चलते हैं उस दौर में जब देश आज़ादी की दहलीज पर था। उस समय यह फैसला सिर्फ भावनाओं पर नहीं, बल्कि कई वास्तविक पहलुओं पर भी निर्भर था। जवाहरलाल नेहरू ने इस मुद्दे पर अपनी राय कई पत्रों और आधिकारिक नोट्स में रखी, जो आज भी नेहरू आर्काइव में मौजूद हैं। नेहरू ने साफ लिखा था कि राष्ट्रगान केवल शब्दों से नहीं, बल्कि उसकी धुन से पहचाना जाता है। राष्ट्रगान वह गीत होता है जिसे बार-बार ऑर्केस्ट्रा, मिलिट्री बैंड और अंतरराष्ट्रीय आयोजनों में बजाया जाता है, इसलिए उसकी धुन में गरिमा, गति और पहचान होनी चाहिए। नेहरू का कहना था कि जन गण मन की धुन इन सभी मानकों पर खरी उतरती है—यह प्रभावशाली है, ऑर्केस्ट्रा में आसानी से बजाई जा सकती है, और विदेशी दर्शकों के लिए भी समझने और महसूस करने लायक है।
इसके उलट, नेहरू के अनुसार वंदे मातरम् की धुन अत्यंत सुंदर होते हुए भी “करुण और धीमी” है, जो बैंड या ऑर्केस्ट्रा प्रस्तुति के लिए सुविधाजनक नहीं है। उन्होंने लिखा कि इसकी धुन में दोहराव अधिक है, इसे बड़े पैमाने पर सैन्य बैंड में बजाना कठिन है, और अंतरराष्ट्रीय मंच पर यह उतनी प्रभावी नहीं दिखेगी जितनी जन गण मन दिखती है। इसके साथ ही उन्होंने एक और महत्वपूर्ण तर्क दिया—कि वंदे मातरम् की भाषा कई लोगों के लिए जटिल है। यहाँ तक कि नेहरू ने स्वीकार किया कि उन्हें खुद इसकी कई पंक्तियाँ पूरी तरह समझ नहीं आतीं। इसलिए, उनका मानना था कि एक राष्ट्रीय गान वह होना चाहिए जिसे सामान्य भारतीय भी आसानी से समझ सके।
अब बड़ा विवादित सवाल—क्या मुसलमानों के विरोध की वजह से वंदे मातरम् राष्ट्रगान नहीं बना? इस सवाल पर नेहरू का रुख अत्यंत स्पष्ट था। 15 जून 1948 को उन्होंने पश्चिम बंगाल के मुख्यमंत्री बनने वाले बी.सी. रॉय को पत्र में लिखा कि यह दावा पूरी तरह गलत है। उन्होंने कहा कि राष्ट्रगान के चयन में धार्मिक विरोध ने कोई निर्णायक भूमिका नहीं निभाई। असली वजह संगीत, धुन और अंतरराष्ट्रीय प्रस्तुति की आवश्यकताएँ थीं। नेहरू ने यह भी कहा था कि वंदे मातरम् स्वतंत्रता संग्राम की पीड़ा, संघर्ष और लालसा का प्रतीक है—एक ऐसा भाव जो आज़ादी के दिनों के लिए उपयुक्त था, लेकिन राष्ट्रगान को “विजय, पूर्णता और उपलब्धि” का प्रतिनिधित्व करना चाहिए, जो भाव उन्हें जन गण मन में अधिक मिलता था।
इस विषय पर श्यामा प्रसाद मुखर्जी को लिखे पत्र में भी नेहरू ने वही बात दोहराई। उन्होंने कहा कि वंदे मातरम् एक महान राष्ट्रीय गीत रहेगा और उससे कोई भी सम्मान नहीं छीना जा सकता। यह भारत की संघर्ष-गाथा का अमिट प्रतीक है, लेकिन राष्ट्रगान के लिए जिस तेज, स्पष्ट और भव्य धुन की ज़रूरत है, उसमें जन गण मन अधिक उपयुक्त है। उन्होंने यह भी याद दिलाया कि दुनिया भर में राष्ट्रीय गानों को संगीत की दृष्टि से परखा जाता है—कौन सी धुन सैन्य बैंड में फिट बैठती है, कौन सा संगीत विदेशों में भारत की पहचान मजबूत बनाता है। और जन गण मन ने इन्हीं आधारों पर जगह बनाई।
संविधान सभा ने भी नेहरू की इस व्याख्या को गंभीरता से लिया और अंततः एक ऐतिहासिक फैसला किया—जन गण मन को भारत का राष्ट्रगान घोषित किया गया और वंदे मातरम् को राष्ट्रीय गीत। दोनों को सम्मान दिया गया, लेकिन दोनों की भूमिकाएँ अलग रखी गईं। वंदे मातरम् राष्ट्रगीत बना—जिसे अत्यंत भावनात्मक और ऐतिहासिक महत्व मिला—और जन गण मन राष्ट्रगान बना—जो भारत की आधुनिक, अंतरराष्ट्रीय और औपचारिक पहचान का प्रतीक बना।
आज जब यह बहस फिर से सामने आई है, तो राजनीतिक आरोप-प्रत्यारोप से परे यह समझना जरूरी है कि इतिहास सिर्फ भावनाओं से नहीं चलता, वह दस्तावेज़ों और तर्कों पर भी आधारित होता है। प्रधानमंत्री मोदी का आरोप है कि वंदे मातरम् को deliberately रोका गया, जबकि नेहरू के पत्र बताते हैं कि मामला धार्मिक विरोध का नहीं, बल्कि धुन और व्यावहारिकता का था। वंदे मातरम् आज भी उतना ही सम्मानित है जितना आज़ादी के समय था—यह गीत संघर्ष की आत्मा है। लेकिन राष्ट्रगान के रूप में जन गण मन को इसलिए चुना गया क्योंकि उसकी धुन भारत की “संपन्नता, पहचान और वैश्विक प्रस्तुतिकरण” के अनुरूप थी।
इतिहास में दोनों गीतों को उनका सम्मान मिला है—वंदे मातरम् भारत की आत्मा का गीत है और जन गण मन भारत का औपचारिक, सांस्कृतिक और वैश्विक परिचय। और यही दोनों मिलकर भारतीय राष्ट्रवाद की पूरी तस्वीर बनाते हैं।

