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ठाकरे भाइयों का ‘मिलन’ , 20 साल की दूरी खत्म या सियासी रणनीति?

कभी जो शिवसेना बाला साहेब ठाकरे के करिश्माई नेतृत्व की पहचान थी, वही पार्टी आज दो हिस्सों में बंट चुकी है। ठाकरे परिवार की राजनीति में उस वक्त दरार आई थी जब उत्तराधिकारी को लेकर राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे के बीच खटास बढ़ गई थी। अब एक बार फिर ये दोनों भाई करीब आने की कोशिश में हैं और महाराष्ट्र की राजनीति में एक नई हलचल दिखाई दे रही है।

राज और उद्धव की नजदीकियां बढ़ती हुई?
हाल ही में अभिनेता और फिल्म निर्देशक महेश मांजरेकर के यूट्यूब चैनल पर एक पॉडकास्ट में राज ठाकरे ने बड़ा बयान दिया। उन्होंने कहा कि उद्धव ठाकरे से उनके मतभेद हैं, पर महाराष्ट्र के हित के आगे ये सब बहुत छोटी बातें हैं। अगर राज्य और मराठी लोगों के भले के लिए साथ आना पड़े, तो वह कोई मुश्किल नहीं है। बस इच्छा होनी चाहिए।

राज की इस सकारात्मक सोच पर उद्धव ठाकरे ने भी प्रतिक्रिया दी, पर साथ में एक शर्त भी रख दी। उन्होंने कहा कि वे आपसी झगड़ों को भुला सकते हैं, लेकिन जो महाराष्ट्र के खिलाफ काम करते हैं, उनके साथ खड़ा नहीं हो सकते।

पार्टी नेताओं की प्रतिक्रिया
संजय राउत, जो उद्धव ठाकरे के करीबी माने जाते हैं, उन्होंने कहा कि अगर राज ठाकरे उन लोगों से दूरी बना लें जो उद्धव और शिवसेना के विरोधी हैं, तो बातचीत संभव है। वहीं अंबादास दानवे ने भी कहा कि दोनों भाई हैं, लेकिन उनका राजनीतिक मार्ग अलग-अलग है। अगर मिलकर कुछ करना है, तो उसे मीडिया से दूर रखकर निजी स्तर पर बातचीत करनी चाहिए।

साथ आने की मजबूरी क्यों?
राज ठाकरे की पार्टी महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना (मनसे) अब पहले जितनी प्रभावशाली नहीं रही। वहीं, उद्धव ठाकरे की शिवसेना भी एकनाथ शिंदे के विद्रोह और भाजपा से उसके गठजोड़ के बाद कमजोर पड़ी है। आने वाले बीएमसी चुनाव में एनडीए गठबंधन काफी मजबूत स्थिति में है। ऐसे में दोनों ठाकरे भाइयों को अपनी-अपनी राजनीतिक ताकत वापस पाने के लिए एकजुट होना जरूरी लग रहा है।

अलग होने की कहानी
राज ठाकरे और उद्धव ठाकरे, दोनों ही बाला साहेब के बेहद करीबी थे। राज ठाकरे का अंदाज़, बोलने का तरीका और तेवर बिल्कुल बालासाहेब जैसे थे, जिससे उन्हें उनका स्वाभाविक उत्तराधिकारी माना जा रहा था। लेकिन 2002 में जब बालासाहेब ने उद्धव ठाकरे को बीएमसी चुनावों की जिम्मेदारी दी और उसमें सफलता मिली, तो पार्टी में उद्धव की पकड़ बढ़ गई। इससे राज नाराज़ हो गए।

2003 में राज को कार्यकारी अध्यक्ष तो बनाया गया, लेकिन उनकी नाराजगी बनी रही। 2005 में उन्होंने पार्टी से इस्तीफा दिया और 2006 में महाराष्ट्र नवनिर्माण सेना की स्थापना कर दी। तभी से दोनों भाइयों के रास्ते अलग हो गए।

क्या अब दोनों साथ आएंगे?
आज की स्थिति में यह साफ है कि बीएमसी चुनाव सिर्फ एक चुनाव नहीं, बल्कि ठाकरे परिवार की राजनीतिक साख की परीक्षा है। अगर दोनों भाई साथ आते हैं तो यह न केवल उनके लिए, बल्कि पूरे महाराष्ट्र की राजनीति में बड़ा मोड़ साबित हो सकता है। लेकिन सवाल अब भी वही है—क्या दोनों में से कोई नेतृत्व छोड़ने को तैयार होगा? क्या उनके सहयोगी और कार्यकर्ता इस एकता को स्वीकार करेंगे?हालात चाहे जैसे भी हों, अब वक्त बता ही देगा कि क्या शिवसेना फिर से एक हो पाएगी, या यह दरार हमेशा कायम रहेगी।

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